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हम बहुत रह चुके यारों, शहरों के कारागारों में,बसे भीड़ में, धक्के खाते, खड़े रहे कतारों में!करे घोंसले बहुतेरे, महलो में, परिंदों की भांति थोडी देर जियें गरुडो सा, चट्टानों की दरारों में! उत्तुंग शिखर मुस्काते हैं, जो आनन छूए अंबर का,शिवलहरी को आमंत्रित करता, ये आवास दिगंबर का;चिडियों की… [[ This is a content summary […]